गज़ल-10
यूं पबन, रुत को रंगीं बनाये
ऊदी-ऊदी घटा लेके आये
भीगा-भीगा-सा ये आज मौसम
गीत-ग़ज़लों की बरसात लाये
ख़ूब से क्यों न फिर ख़ूबतर हो
जब ग़ज़ल चांदनी में नहाये
दिल में मिलने की बेताबियां हों
फ़ासला ये करिश्मा दिखाये
साज़े-दिल बजके कहता है‘महरिष’
ज़िंदगी रक़्स में डूब जाये
—–
ग़ज़ल-11
नाम दुनिया में कमाना चाहिये
कारनामा कर दिखाना चाहिये
चुटकियों में कोई फ़न आता नहीं
सीखने को इक ज़माना चाहिये
जोड़कर तिनके परिदों की तरह
आशियां अपना बनाना चाहिये
तालियां भी बज उठेंगी ख़ुद-ब-ख़ुद
शेर कहना भी तो आना चाहिये
लफ्ज़‘महरिष’, हो पुराना, तो भी क्या?
इक नये मानी में लाना चाहिये
—–
ग़ज़ल-12
क्यों न हम दो शब्द तरुवर पर कहें
उसको दानी कर्ण से बढ़कर कहें
विश्व के उपकार को जो विष पिये
क्यों न उस पुरुषार्थ को शंकर कहें
हम लगन को अपनी, मीरा की लगन
और अपने लक्ष्य को गिरधर कहें
है ‘सदाक़त’ सत्य का पर्याय तो
“ख़ैर” शिव को‘हुस्न’को सुंदर कहें
तान अनहद की सुनाये जो मधुर
उस महामानव को मुरलीधर कहें
जो रिसालत के लिए नाजिल हुए
बा-अदब, हम उनको पैगंबर कहें
बंदगी को चाहिये‘महरिष’मक़ाम
हम उसे मस्जिद कि पूजाघर कहें
—–
ग़ज़ल-13 हिचकियाँ
जैसी तुम से बिछुड़ कर मिलीं हिचकियाँ
ऐसी मीठी तो पहले न थीं हिचकियाँ
याद शायद हमें कोई करता रहा
दस्तकें दरपे देती रहीं हिचकियाँ
मैंने जब-जब भी भेजा है उनके लिए
मेरा पैग़ाम लेकर गईं हिचकियाँ
फासला दो दिलों का भी जाता रहा
याद के तार से जब जुड़ीं हिचकियाँ
जब से दिल उनके ग़म में शराबी हुआ
तब से हमको सताने लगीं हिचकियाँ
उनके ग़म में लगी आंसुओं की झड़ी
रोते-रोते हमारी बंधीं हिचकियाँ
उनको ‘महरिष’, जिरा नाम लेना पड़ा
तब कहीं जाके उनकी रुकीं हिचकियाँ
—–
ग़ज़ल-14
जाम हम बढ़के उठा लेते, उठाने की तरह
क्यों न पीते जो पिलाते वो पिलाने की तरह
तुम ठहरने को जो कहते, तो ठहर जाते हम
हम तो जाने को उठे ही थे, न जाने की तरह
कोई आंचल भी तो हो उनको सुखाने के लिए
अश्क तब कोई बहाए भी, बहाने की तरह
टीस कहती है वहीं उठके तड़पती-सी ग़ज़ल
दिल को जब कोई दुखाता है, दुखाने की तरह
गर्मजोशी की तपिश भी तो कुछ उसमें होती
हाथ ‘महरिष’, जो मिलाते वो मिलाने की तरह
—–
ग़ज़ल-15
गीत ऐसा कि जैसे कमल चाहिये
उसपे भंवरों का मंडराता दल चाहिये
एक दरिया है नग़्मों का बहता हुआ
उसके साहिल पे शामे-ग़ज़ल चाहिये
जिसको जीभर के हम जी सकें, वो हमें
शोख़, चंचल, मचलता-सा पल चाहिये
और किस रोग की है दवा शाइरी
कुछ तो मेरी उदासी का हल चाहिये
ख़ैर, दो-चार ही की न ‘महरिष’ हमें
हम को सारे जहां की कुशल चाहिये
ग़ज़ल-9
है भंवरे को जितना कमल का नशा
किसी को है उतना ग़ज़ल का नशा
पियें देवता शौक से सोमरस
महादेव को है गरल का नशा
हैं ख़ुश अपने कच्चे घरौंदों में हम
उन्हें होगा अपने महल का नशा
पिलाकर गया है कुछ ऐसी अतीत
उतरता नहीं बीते कल का नशा
कोई ‘गीतिका’ छंद में है मगन
किसी को है‘बहरे-रमल’का नशा
बड़ी शान से अब तो पीते हैं सब
कि फ़ैशन हुआ आजकल का नशा
पियो तुम तो‘महरिष’सुधा शांति की
बुरा युद्ध का एक पल का नशा
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गज़ल-10
यूं पबन, रुत को रंगीं बनाये
ऊदी-ऊदी घटा लेके आये
भीगा-भीगा-सा ये आज मौसम
गीत-ग़ज़लों की बरसात लाये
ख़ूब से क्यों न फिर ख़ूबतर हो
जब ग़ज़ल चांदनी में नहाये
दिल में मिलने की बेताबियां हों
फ़ासला ये करिश्मा दिखाये
साज़े-दिल बजके कहता है‘महरिष’
ज़िंदगी रक़्स में डूब जाये
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ग़ज़ल-11
नाम दुनिया में कमाना चाहिये
कारनामा कर दिखाना चाहिये
चुटकियों में कोई फ़न आता नहीं
सीखने को इक ज़माना चाहिये
जोड़कर तिनके परिदों की तरह
आशियां अपना बनाना चाहिये
तालियां भी बज उठेंगी ख़ुद-ब-ख़ुद
शेर कहना भी तो आना चाहिये
लफ्ज़‘महरिष’, हो पुराना, तो भी क्या?
इक नये मानी में लाना चाहिये
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ग़ज़ल-12
क्यों न हम दो शब्द तरुवर पर कहें
उसको दानी कर्ण से बढ़कर कहें
विश्व के उपकार को जो विष पिये
क्यों न उस पुरुषार्थ को शंकर कहें
हम लगन को अपनी, मीरा की लगन
और अपने लक्ष्य को गिरधर कहें
है ‘सदाक़त’ सत्य का पर्याय तो
“ख़ैर” शिव को‘हुस्न’को सुंदर कहें
तान अनहद की सुनाये जो मधुर
उस महामानव को मुरलीधर कहें
जो रिसालत के लिए नाजिल हुए
बा-अदब, हम उनको पैगंबर कहें
बंदगी को चाहिये‘महरिष’मक़ाम
हम उसे मस्जिद कि पूजाघर कहें
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ग़ज़ल-13 हिचकियाँ
जैसी तुम से बिछुड़ कर मिलीं हिचकियाँ
ऐसी मीठी तो पहले न थीं हिचकियाँ
याद शायद हमें कोई करता रहा
दस्तकें दरपे देती रहीं हिचकियाँ
मैंने जब-जब भी भेजा है उनके लिए
मेरा पैग़ाम लेकर गईं हिचकियाँ
फासला दो दिलों का भी जाता रहा
याद के तार से जब जुड़ीं हिचकियाँ
जब से दिल उनके ग़म में शराबी हुआ
तब से हमको सताने लगीं हिचकियाँ
उनके ग़म में लगी आंसुओं की झड़ी
रोते-रोते हमारी बंधीं हिचकियाँ
उनको ‘महरिष’, जिरा नाम लेना पड़ा
तब कहीं जाके उनकी रुकीं हिचकियाँ
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ग़ज़ल-14
जाम हम बढ़के उठा लेते, उठाने की तरह
क्यों न पीते जो पिलाते वो पिलाने की तरह
तुम ठहरने को जो कहते, तो ठहर जाते हम
हम तो जाने को उठे ही थे, न जाने की तरह
कोई आंचल भी तो हो उनको सुखाने के लिए
अश्क तब कोई बहाए भी, बहाने की तरह
टीस कहती है वहीं उठके तड़पती-सी ग़ज़ल
दिल को जब कोई दुखाता है, दुखाने की तरह
गर्मजोशी की तपिश भी तो कुछ उसमें होती
हाथ ‘महरिष’, जो मिलाते वो मिलाने की तरह
ग़ज़ल-15
गीत ऐसा कि जैसे कमल चाहिये
उसपे भंवरों का मंडराता दल चाहिये
एक दरिया है नग़्मों का बहता हुआ
उसके साहिल पे शामे-ग़ज़ल चाहिये
जिसको जीभर के हम जी सकें, वो हमें
शोख़, चंचल, मचलता-सा पल चाहिये
और किस रोग की है दवा शाइरी
कुछ तो मेरी उदासी का हल चाहिये
ख़ैर, दो-चार ही की न ‘महरिष’ हमें
हम को सारे जहां की कुशल चाहिये
ग़ज़ल-5
लाया था जो हमारे लिये जाम, पी गया
क़ासिद हमारे नाम का पैग़ाम पी गया
कुछ इस तरह सुनाई हमें उसने दास्तां
आया जो इख़्तिताम, तो अंजाम पी गया
पलकों पे कोई दीप जलाये तो किस तरह
आंसू बचे थे जो दिले-नाकाम पी गया
लेले के नाम सबको पुकारा किया, मगर
साकी को देखिये कि मेरा नाम पी गया
‘महरिष’, ये दर्द, रिदे-बलानोश है कोई
सब दिन का चैन, रात का आराम पी गया
—–
ग़ज़ल-6
नाकर्दा गुनाहों की जिली यूं भी सज़ा है
साकी नज़र-अंदाज़ हमें करके चला है
क्या होती है ये आग भी, क्या जाने समंदर
कब तिश्नालबी का उसे एहसास हुआ है
उस शख्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूटके मिलता था, तकल्लुफ से मिला है
पूछा जो मिज़ाज उसने कभी राह में रस्मन
रस्मन ही कहा मैंने कि सब उसकी दुआ है
महफ़िल में कभी जो मिरी शिरकत से ख़फ़ा था
महफ़िल में वो अब मेरे न आने से ख़फा है
क्यों उसपे जफाएं भी न तूफान उठाएं
जिस राह पे निकला हूं मैं, वो राहे-वफ़ा है
पीते थे न ’महरिष, तो सभी कहते थे ज़ाहिद
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है।
—
ग़ज़ल-7
इरादा वही जो अटल बन गया है
जहां ईंट रक्खी, महल बन गया है
ख़्याल एक शाइर का आधा-अधूरा
मुकम्मल हुआ तो ग़ज़ल बन गया है
कहा दिलने जो शेर भी चोट खाकर
मिसाल इक बना, इक मसल बन गया है
पुकारा है हमने जिसे‘आज’कह कर
वही‘वक्त’कम्बखत‘कल’बन गया है
ये दिल ही तो है, भरके ज़ख्मों से‘महरिष’
खिला, और खिल कर कमल बन गया है
—–
ग़ज़ल-8
मस्त सब को कर गई मेरी ग़ज़ल
इक नये अंदाज़ की मेरी ग़ज़ल
एक तन्हाई का आलम, और मैं
पेड़-पौधों ने सुनी मेरी ग़ज़ल
खाद-पानी लफ्ज़ो-मानी का जिला
ख़ूब ही फूली-फली मेरी ग़ज़ल
जब कभी जज़्बात की बारिश हुई
भीगी-भीगी-सी हुई मेरी ग़ज़ल
फूंकती है जान इक-इक लफ्ज़ में
शोख़, चंचल, चुलबुली, मेरी ग़ज़ल
ये भी है मेरे जिये राहत की बात
जांच में उतरी खरी मेरी ग़ज़ल
आया ‘महरिष’, शेर कहने का शऊर
मेहरबां मुझ पर हुई मेरी ग़ज़ल
आर.पी. शर्मा ( उपनाम ‘महरिष’)
प्रकाशित पुस्तकें
1. हिंदी ग़ज़ल संरचना – एक परिचय
(सन् 1984 में मेरे द्वारा इल्मे – अरूज़ (उर्दू छंद-शास्त्र)
का सर्वप्रथम हिंदी में मौलिक रूपांतरण)
2. ग़ज़ल-निर्देशिका
3. ग़ज़ल-विधा
4. ग़ज़ल-लेखन कला
5. व्यावहारिक छंद-शास्त्र (पिंगल और इल्मे-अरूज़ के तुलनात्मक विश्लेषण सहित)
6. नागफ़नियों ने सजाईं महफ़िलें (ग़ज़ल-संग्रह)
ग़ज़ल-3
बहारें हैं फीकी, फुहारें हैं नीरस
न मधुमास ही वो, न पहली-सी पावस
हवाएं भी मैली, तो झीलें भी मैली
कहां जाएं पंछी, कहां जायें सारस
उन्हें चाहिये एक सोने की लंका,
न तन जिनके पारस, न मन जिनके पारस
वो सम्पूर्ण अमृत-कलश चाहते हैं
कि है तामसी जिन का सम्पूर्ण मानस
जो व्रत तोड़ते हैं फ़कत सोमरस से
बड़े गर्व से ख़ुद को कहते हैं तापस
हुआ ईद का चांद जब दोस्त अपना
तो पूनम भी वैसी कि जैसी अमावस
अखिल विश्व में ज़ेहर फैला है‘महरिष’
बने नीलकंठी, है किसमें ये साहस
—–
ग़ज़ल-4
उनका तो ये मज़ाक रहा हर किसी के साथ
खेले नहीं वो सिर्फ़ मिरी ज़िंदगी के साथ
आज़ाद हो गये हैं वो इतने, कि बज़्म में
आए किसी के साथ, गए हैं किसी के साथ
अपनों की क्या कमी थी कोई अपने देश में
परदेश जा बसे जो किसी अजनबी के साथ
फिरते रहे वो दिल में ग़लतफहमियां लिये
ये भी सितम हुआ है मिरी दोस्ती के साथ
‘महरिष’वो हमसे राह में अक्सर मिले तो हैं,
ये और बात है कि मिले बेरूख़ी के साथ
प्रस्तुत है श्री आर. पी. शर्मा “महरिष” के ग़ज़ल संसार की दो चुनिंदा ग़ज़लें
प्रेषक : देवी नागरानी
ग़ज़ल – १
तर्जुमानी जहान की, की है
इस तरह हमने शायरी की है
अंधी गलियों में भटके जब जब हम
फ़िक्र-नौ ने निशांदेही की है
सबको बख़्शा है हौसला हमने
नाख़ुदाई, न रहबरी की है
ख़ुद ग़मों से निढाल होकर भी
हमने औरों की दिलदिही की है
जो हमें एक सूत्र में बांधें
उन प्रयासों की पैरवी की है
उससे सीखेंगे ख़ुशबयानी हम
इक परिंदे से दोस्ती की है
हमने पाई जहां झलक ‘महरिष’
आदमीयत की आरती की है
आर.पी. शर्मा ‘महरिष’
**
ग़ज़ल – २
सोचते ही ये अहले-सुख़न रह गये
गुनगुना कर वो भंवरे भी क्या कह गये
इस तरह भी इशारों में बातें हुई
लफ़्ज़ सारे धरे के धरे रह गये
नाख़ुदाई का दावा था जिनको बहुत
रौ में ख़ुदा अपने जज़्बात की बह गये
लब, कि ढूंढा किये क़ाफ़िये ही मगर
अश्क आये तो पूरी ग़ज़ल कह गये
‘महरिष’ उन कोकिलाओं के बौराए स्वर
अनकहे, अनछुए-से कथन कह गये
आर.पी. शर्मा ‘महरिष’