गज़लः १८
आमद आमद है फिर घटाओं की
अब ज़रूरत है कुछ हवाओं की.
लोग निकले वे सुरख़ूरू होकर
सर पे जिनके दुआ है माओं की.
रात दिन शहर में भटकते हैं
खो गयी राह अब है गाओं की.
डर से पीले हुए सभी पत्ते
आहटें जब सुनी खिज़ाओं की.
बेगुनाही तो मेरी साबित है
फिर सज़ाएं है किन खताओं की.
कहके देवी मुझे पुकारा था
गूँज अब तक है उन सदाओं की.१२८
अक्टूबर 11, 2007
आमद आमद है फिर घटाओं की
टिप्पणी करे »
अभी तक कोई टिप्पणी नहीं ।
टिप्पणी करे